Tuesday 21 May 2013

भारतीये फिल्में और कान


फ्रांस के कान फिल्मोत्सव का आगाज आज से लगभग 66 साल पहले यानी 1952 में हुआ था। यहां महत्वपूर्ण बात ये है कि पहले ही कान फिल्मोत्सव में ही चेतन आनंद की फिल्म नीचा नगर को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला था। लेकिन इसके बाद कान में आधाकरिक रूप से गिनी चुनी भारतीये फिल्मों को ही जाने का मौका मिला। बताते चलें कि वो 1994 का साल था जब मलयालम फिल्म स्वाहम को भारत की तरफ से आधाकारिक रूप से कान में शामिल किया गया था। इसके बाद तो लगभग 20 साल हो गए लेकिन भारत से किसी भी फिल्म को कान से बुलावा नहीं आया है। ये इसलिए भी गंभीर है कि हाल ही में हमने सिनेमा के 100 साल का जश्न मनाया था मगर बावजूद इसके हम बेहतरीन फिल्में नहीं बना पा रहे हैं जो कान जैसे महोत्सव में हमारे देश की शान बढा सके।

वैसे इस साल तो विद्या बालन कान की ज्यूरी में बैठकर भारत की उपस्थिति दर्ज करा रहीं हैं, तो वहीं नंदिता दास को भी एक बार फिर शॉर्ट ज्यूरी में बैठने का सम्मान प्राप्त हुआ। कान में भारत को ब्राजील और मिस्र के साथ गेस्ट कंट्री में रखा गया है, जो ये बताने के लिए काफी है कि भारत में फिल्मों का मौजूदा स्तर क्या है। हालांकि नीचा नगर को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिलने के बाद सत्यजीत राय की पाथेर पांचाली को 1955 में पुरस्कार मिला था। इसके साथ ही मृणाल सेन की 'खारिज' को 1983 में स्पेशल जूरी अवार्ड मिला तो वहीं मीरा नायर की सलाम बांबे को भी 1988 में ऑडियंस अवार्ड मिला था। इन कुछ फिल्मों को छोड दिया जाए तो शायद ही किसी फिल्म ने कान में अपने आपको साबित किया हो।

वहीं आंकडों की बात करें तो पिछले पांच सालों में भारतीय फिल्म इंडस्ट्री ने 11.6 फिसदी की दर से विकास किया है, लेकिन फिर भी फिल्में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की नहीं बन पा रहीं हैं। भारत में सभी भाषाओं में हर साल तकरीबन एक हज़ार फिल्में बनतीं हैं लेकिन क्वालिटी के नाम पर अगर बात करें तो महज चंद फिल्मों पर आकर ही गिनती रूक जाती है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अगर देखें तो इक्का दुक्का नामों को छोडकर भारतीये कलाकारों को भी शायद ही कोई जानता हो। इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि हमारी फिल्में एक खास दर्शक वर्ग के लिए बनाई जाती हैं जहां पर बस पैसा कमाने की होड लगी हुई है। इसलिए हमें ज्यादा तादाद में नहीं बल्कि बेहतर क्वालिटी की फिल्में बनाने की जरूरत है ताकि हमारी फिल्मों को भी कान जैसे दुनिया के बडे महोत्सव में पेश होने का मौका मिल सके। 

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