फ्रांस के कान फिल्मोत्सव का आगाज आज से लगभग 66 साल पहले
यानी 1952 में हुआ था। यहां महत्वपूर्ण बात ये है कि पहले ही कान फिल्मोत्सव में
ही चेतन आनंद की फिल्म नीचा नगर को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला था। लेकिन
इसके बाद कान में आधाकरिक रूप से गिनी चुनी भारतीये फिल्मों को ही जाने का मौका
मिला। बताते चलें कि वो 1994 का साल था जब मलयालम फिल्म स्वाहम को भारत की तरफ से आधाकारिक
रूप से कान में शामिल किया गया था। इसके बाद तो लगभग 20 साल हो गए लेकिन भारत से
किसी भी फिल्म को कान से बुलावा नहीं आया है। ये इसलिए भी गंभीर है कि हाल ही में
हमने सिनेमा के 100 साल का जश्न मनाया था मगर बावजूद इसके हम बेहतरीन फिल्में नहीं
बना पा रहे हैं जो कान जैसे महोत्सव में हमारे देश की शान बढा सके।
वैसे इस साल तो विद्या बालन कान की ज्यूरी में बैठकर भारत
की उपस्थिति दर्ज करा रहीं हैं, तो वहीं नंदिता दास को भी एक बार फिर शॉर्ट ज्यूरी
में बैठने का सम्मान प्राप्त हुआ। कान में भारत को ब्राजील और मिस्र के साथ गेस्ट
कंट्री में रखा गया है, जो ये बताने के लिए काफी है कि भारत में फिल्मों का मौजूदा
स्तर क्या है। हालांकि नीचा नगर को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिलने के बाद
सत्यजीत राय की पाथेर पांचाली को 1955 में पुरस्कार मिला था। इसके साथ ही मृणाल सेन की 'खारिज' को 1983 में स्पेशल जूरी अवार्ड मिला तो वहीं मीरा
नायर की सलाम बांबे को भी 1988 में ऑडियंस अवार्ड मिला था। इन कुछ फिल्मों को
छोड दिया जाए तो शायद ही किसी फिल्म ने कान में अपने आपको साबित किया हो।
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