Thursday 30 May 2013

इस लडाई का अंत क्या है?


बीते शानिवार यानि 25 मई को छत्तीसगढ के सुकमा में नक्सलियों ने तकरीबन 30 लोगों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया। नक्सली हमले में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नंद कुमार पटेल और वरिष्ठ नेता महेंद्र कर्मा समेत पार्टी के कई और बडे नेता मारे गए। हमले के बाद आनन-फानन में यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह छ्त्तीसगढ पहुंचे और शोकाकुल परिवार को धीरज बंधाने का प्रायस किया। हमले के बाद लगभग सभी राजनीतिक दलों ने इसकी कडे शब्दों में निंदा की। फिलहाल तमाम तरह की जांचों के द्वारा मामले को समझने की कोशिश की जा रही है। वैसे हमले में बच गए नेताओं पर भी शक किया जा रहा है, लेकिन फिलहाल पुलिस समेत तमाम बडे अधिकारी  पुख्ता तौर कुछ भी कहने से बच रहे हैं।



पूरे मामले पर गौर करें तो बडी अलग तस्वीर नजर आती है। पहला सवाल तो ये कि अपने हकों की लडाई के नाम पर हथियार उठाने वाले नक्सली आखिर इतने खूंखार कैसे हो सकते हैं। एक के बाद एक बडी घटनाओं में बेरहमी से पुलिस के जवानों और आम जनता का खून बहाने वाले माओवादी उनकी लाशों पर खडे होकर कैसे नाच सकते हैं। याद रहे कि 2010 में भी दंतेवाडा में घात लगाकर नक्सलियों ने 75 जवानों को मार डाला था। इसी तरह की तमाम घटनाओं को अंजाम देते हुए नक्सली अब तक सैकड़ों जवानों को मौत की नींद सुला चुके हैं। कई बार हमारे सफेदपोश नेता कहते हुए दिख जाते हैं कि दूसरे देशों से सुरक्षा का सबसे बडा खतरा है, लेकिन यहां पर सरकार के लिए घर के ही दुश्मनों से निपटना मुश्किल बनता जा रहा है। कई जानकार तो यहां तक सुझाव देते हैं क्यों न श्रीलंका की तरह से सेना का इस्तेमाल करके इस समस्या से एक ही बार में निजात पा ली जाए।



हो सकता है कि इस बात में दम हो लेकिन क्या जीने की बुनियादी चीजों की मांग पर हथियार उठाने वालों की आवाज को इस तरह से दबाया जा सकता है। आंकडों की बात करें तो राष्ट्रीय खनिज विकास निगम हर साल छत्तीसगढ़ से विभिन्न प्रकार के खनिजों के जरिए 4000 करोड़ रुपए से भी अधिक की आमदनी करता है लेकिन इसमें से थोडा सा पैसा भी तरक्की के नाम पर खर्च नहीं करता है। यानि उनकी जमीन से कमाए गए पैसों में से जरा सा हिस्सा भी उनके ऊपर खर्च नहीं किया जा रहा है और यहीं आदिवासी लोगों को नक्सलवादी बनने पर मजबूर करती हैं। इसलिए सबसे ज्यादा जरूरी ये है कि पहले इन क्षेत्रों में विकास किया जाए ताकि खुद को देश से अलग समझने वाले ये लोग दोबारा से मुख्यधारा में शामिल होकर खून खराबा छोड सकें। जैसे कि सभी जानते हैं कि छत्तीसगढ में सरकार कांग्रेस की नहीं है तो कहीं न कहीं इस मुद्दे पर राजनीति होना तो लाजिमी है, लेकिन सभी दलों को इससे ऊपर उठकर इस समस्या का स्थाई समाधान ढूंढना होगा नहीं तो ये खूनी सिलसिला यूं बदस्तूर चलता रहेगा।   

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