Saturday 8 October 2011

मोदी बन सकेंगे पीएम ?


बीते महीने यानि सिंतबर की 17 तारीख को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन दिन का उपवास रखकर राज्य की जनता से सीधे जुड़ने का प्रयास किया। असल में मोदी अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा मिली तथाकथित राहत और एक अमेरिकी रिपोर्ट के खुद के पक्ष में उजागर होने से उत्साहित होकर उन्होंने उपहास करके अपनी खुशी खुशी जाहिर करने की ठानी। वैसे मोदी ने अपने आराम का खासा ख्याल रखते हुए इसे अहमदाबाद यूनिवर्सिटी में आयोजित कराया जहां पर इस आयोजन पर रोज़ाना तकरीबन 35 लाख रूपए खर्च किए गए। उधर कांग्रेस के खिलाफ एक के बाद एक मौके मिलने के बावजूद भी सत्ताधारी पार्टी को नहीं घेर पा रही भारतीय जनता पार्टी ने भी मोदी के उपहास को अधिक महत्व दिया और तमाम बड़े नेता मंच से मोदी की तारीफों के पुल बांधते हुए दिखाई दिये। वहीं जैसे ही कांग्रेस के नेताओं को इसकी भनक लगी तो उन्होंने भी तीन दिन तक निराहार फुटपाथ पर बैठकर उपहास करने का फैसला किया। हालांकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष शंकर सिंह वाघेला का साथ देने के लिए आला कमान से कोई बड़ा नेता तो नहीं आया लेकिन उन्होंने तय किये गए वक्त के अनुसार पूरे 75 घंटे तक उपवास किया। वहीं एक तरफ तो कई सहयोगी पार्टी मोदी की तारीफों में कसीदे पढ़ने में मशगूल दिखाई दीं, तो दूसरी ओर जेडीयू ने इससे पूरी तरह दूरी बनाए रखी। पार्टी अध्यक्ष शरद यादव ने तो यहां तक कह दिया कि अब उपवास करना भी फैशन की तरह हो गया है, क्योंकि गरीब लगभग रोज़ाना उपवास करते हैं लेकिन इनका चर्चा किसी टीवी या अखबार में नहीं होता है।

इन तीन दिनों में मोदी ने कई तरह के भाषण मंच से दिये लेकिन दंगों के बारे में न अधिक जिक्र किया और न ही इस दिल दहला देने वाली सांप्रदायिक घटना पर किसी तरह की माफी मांगी। और तो और मोदी तो इन तीन दिनों में सबकुछ भुलाकर अपनी अच्छाईयों को गिनाने लगे हुए रहे। मोदी के मुताबिक दुनिया में इस समय गुजरात के विकास की चर्चा हो रही है। साथ ही उन्होंने कहा कि किसी भी राज्य में 11 फीसद के साथ विकास नहीं हो रहा है, लेकिन उनके राज्य ने ये कमाल करके दिखाया है। मोदी ने इसके अलावा बताया कि विकास की आंधी में विपक्षी पार्टियों की वोट बैंक की राजनीति का भी अंत हो गया है। भले ही मोदी अपनी खुशी को विकास के तमाम आंकड़े गिनाकर बढ़ा चढ़ा कर पेश कर रहे हैं लेकिन जिस धब्बे ने उन्हें देश भर में सांप्रदायिकता फैलाने वाले चेहरे के रूप में पेश किया उस पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। याद रहे कि गोधरा कांड के बाद राज्य में फैली हिंसा में तकरीबन दो हज़ार से भी अधिक अल्पसंख्यकों को मौते के घाट उतार दिया गया था। मोदी पर पीड़ितों के परिवारजनों ने दंगाईयों के खिलाफ किसी भी तरह की कार्यवाई न करने का आरोप लगाया था। दंगे में मारे गए पूर्व कांग्रेसी नेता की पत्नी जाकिया ने तो यहां तक आरोप लगाया था कि पुलिस को उन्होंने कई बार फोन किया था लेकिन उनकी किसी ने भी नहीं सुनी और हिंसा कर रहे लोगों ने उनके पति को जला दिया था। यहां इस बात का उल्लेख करना भी जरूरी हो जाता है कि राज्य के लगभग सभी समुदायों ने इस सदभावना मिशन में भाग लिया जिसमें बडी संख्या में मुस्लिम समुदाय के लोग भी हिस्सा लिया। लेकिन मोदी इस समुदाय से किस कदर दूरी बनाए रखना चाहते हैं ये भी उस समय जाहिर हो गया जब एक मौलवी द्वारा दी गई टोपी को उन्होंने पहनने के इंकार कर दिया। अब जब मोदी दूसरे सभी समुदायों की टोपी पहन सकते हैं तो फिर इस वर्ग की इस पवित्र चीज को पहनने से उन्हें आपत्ति क्यों है। इन तमाम बिंदुओं पर गौर करने के बाद साफ हो जाता कि मोदी भले ही सदभावना मिशन के जरिए ये संदेश देने में लगे हों कि मुख्यमंत्री होने के नाते उनके मन में सभी के प्रति एक सा प्यार है लेकिन कहीं न कहीं वो अभी भी इस वर्ग से दूरी बनाए रखना चाहते हैं, मगर अगले साल होने वाले चुनावों की मजबूरी के चलते मोदी सदभावना मिशन करने को विवश हैं।


वहीं इस उपहास के दौरान मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर भी प्रस्तुत करने की कोशिश की गई। यूं भी भाजपा के लिए मोदी का ये गढ़ सत्ता के हिसाब से सुरक्षित नज़र आता है, तभी तो इस चिंगारी को हवा मिल गई कि मोदी 2014 में देश के प्रधानमंत्री पद के बड़े दावेदार हो सकते हैं। ऐसा इसलिए भी हो सकता है, क्योंकि इस बार कांग्रेस पार्टी भी राहुल गांधी को पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर उतार सकती है। अब ऐसे में भाजपा के पास मोदी जैसा तुरूप का इक्का मौजूद है, जिसे वो राहुल गांधी की काट के लिए खेल सकती है। अब सवाल यहां ये भी उठता है कि क्या खुद भाजपा के अंदर भी मोदी को लेकर एक राय है। ये मुद्दा बहस का हो सकता है, क्योंकि राजनीति की थोड़ी बहुत समझ रखने वाला भी ये बता सकता है कि मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार के संबंध किस तरह के हैं। यहां बताते चलें कि नितीश तो मोदी के नाम इतने बिदकते हैं कि उन्होंने चुनावों के दौरान उनके बिहार में घुसने पर भी पाबंदी लगा दी थी। इसके अलावा भी दोनों के बीच अनबन के ख़बरें अक्सर सुनने को मिल ही जाती हैं। वैसे राजनीतिक गलियारों में ये बात भी जोर शोर से गूंज रही है कि भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेंद्र मोदी दिल्ली क्यों नहीं आए। भाजपा ने इस मसले को ये कहकर भी दबाने की असफल कोशिश की कि नवरात्र का उपवास होने के कारण मोदी कार्यकारिणी की बैठक में शामिल होने नहीं सके। अब इस बात को बहाना नहीं कहा जाए तो और कहा जाए क्योंकि बैठक के दौरान पार्टी ने सभी नेताओं को ये साफ निर्देश दिया था कि वो प्रधानमंत्री पद को लेकर किसी तरह की चर्चा न करें। चलिए इस बात को भी यहीं साफ कर देते कि आखिर मोदी बैठक में पहुंचे क्यों नहीं। दरअसल लालकृष्ण आडवाणी चाहते  थे कि वह अपनी रथयात्रा की शुरूआत सरदार पटेल की जन्मस्थली से करें, लेकिन मोदी ने सदभावना मिशन के एक दम बाद ये  ऐलान कर दिया कि वो अब गुजरात के हर जिले में एक-एक दिन का उपवास रखकर सदभावना मिशन को आम जनता तक पहुंचाएंगे। अब अगर मोदी अपने मिशन को आगे बढ़ाएंगे तो फिर इसकी चपेट में आडवाणी की यात्रा तो आएगी ही लिहाजा आडवाणी ने भी अपना मिशन गुजरात के  बजाए बिहार में जयप्रकाश नारायण की जन्मस्थली सिताब्दी एरा से शुरू करने का मन बना लिया। और तो और अब इस यात्रा को हरी झंडी भी मोदी के राजनीतिक शत्रु नितीश कुमार ही दिखाएंगे। इससे नाराज मोदी ने 30 सितंबर को दिल्ली में हुई पार्टी की बैठक में हिस्सा लेने से ही कन्नी काट ली। वहीं सियासी जानकारों का इस मुद्दे पर एक और भी तर्क है कि आडवाणी की यात्रा नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को भी चुनौती दे सकती है ऐसे में अब मोदी की उलझनें और अधिक बढ़ सकती हैं। अलबत्ता ये बात और है कि पार्टी ने फिलहाल साफ किया है कि आडवाणी की रथयात्रा प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए नहीं है। ख़ैर केंद्र सरकार को घेरने के लिए बीजेपी को लगातार कई बड़े मुद्दे हाथ लगे लेकिन वो अंदरूनी कलह में ही उलझी रही। बहरहाल अब ये तो बाद की बात है कि पार्टी बनाम मोदी की इस नूराकुश्ती में जीत किसकी होती है, क्योंकि इससे पहले तो भाजपा को 2014 में होने वाला चुनाव जीतना होगा और तभी ये तय किया जा सकेगा कि देश का प्रधानमंत्री होगा कौन ?

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