Friday 2 September 2011

फुटबॉल से उम्मीद...


कहते हैं कि उगते सूरज को दुनिया नमस्कार करती है डूबते को नहीं, इसी मुहावरे की कसौटी पर आजकल भारतीय क्रिकेट टीम खरी उतर रही है क्योंकि जब भारतीय टीम का सूरज इंग्लैंड में डूबा है तो उसने हर देशवासी का सिर शर्म से नीचा कर दिया है। लेकिन अब लगता है कि दर्शकों ने भी क्रिकेट के मुकाबले अब दूसरे खेलों को भी गंभीरता से लेने शुरू कर दिया है। बात असल में ये है कि हाल ही में जिस तरह से भारतीय खेल प्रेमियों ने दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल फुटबॉल की तरफ अपना रूख करना शुरू किया है उसने इसके भविष्य की तरफ आस जरूर बंधाई है। फिलहाल ये कहना तो अभी जल्दबाज़ी होगा कि कुछ दिनों में ही हमारी टीम दुनिया ताकतवर टीमों को टक्कर देना शुरू कर देगी लेकिन जिस तरह का माहौल इसे लेकर बन रहा है वो संतोषजनक कहा जा सकता है।

दरअसल भारत में फ़ुटबॉल प्रेमियों के लिए दो सितंबर का दिन इस लिहाज से भी सबसे बड़ा होगा क्योंकि कोलकाता की ज़मीन पर अर्जेंटीना और वेनेज़ुएल के बीच एक दोस्ताना मैच होने जा रहा है। इससे भी बड़ी बात ये है कि इस मैचे में दर्शकों को करिश्माई खिलाड़ी लियोनेल मेसी के खेल को भी देखने का बेहतरीन मौका मिलेगा। जब से इस मैच की ख़बर दर्शकों तक पहुंची है इसे लेकर जबर्दस्त उत्साह देखा गया है। वहीं जानकारों की मानें तो इस अकेले मैच की टिकटों की बिक्री से 20 करोड़ से भी अधिक की कमाई हो सकती है। अब भले ही आयोजक गला फाड़कर अपनी सफलता का बखान करें लेकिन सच तो ये है कि लोगों के अंदर इस 90 मिनट के रोमांचक सफर में शामिल होने का जुनून बढ़ता ही जा रहा है। इसके बावजूद मेसी जैसी खिलाड़ी जब देश की सांसों को अपने कदमों की फुर्ती से थामने पर मजबूर करेंगे तो इसका रोमांच किस कदर होगा आंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। सीधे तौर पर एक बात ये भी कही जा सकती है कि हो सकता है विदेशी क्लब देश के भीतर अरबों रूपए के मार्केट को भुनाने का प्रयास कर रहें हों लेकिन इसके बावजूद इसमं सबसे बड़ा फायदा किसका होगा। अगर ऐसे आयोजन होंगे तो हमें एक नहीं बल्कि कई भूटिया जैसे खिलाड़ी मिल सकते हैं जो कि धोनी और सचिन बनने से ज्यादा कुछ सोच ही नहीं पाते हैं।  

वैसे भी हाल फिलहाल में कई विदेशी फ़ुटबॉल क्लबों ने भारत की तरफ रूख करने का मन बनाया है। फीफा तो करोड़ों रूपए खर्च करने को तैयार है क्योंकि भारत उसे फुटबाल के लिहाज से बेहतर जगह मालूम पड़ती है। गौरतलब है कि 1951 के एशियाई खेलों में भारत फुटबॉल प्रतियोगिता का चैंपियन बना था। इसके बाद 56 के ओलंपिक में भारतीय टीम चौथे नंबर पर रही थीष। कहा तो यहां तक जाता है कि 1050 में टीम ने विश्वकप के लिए भी क्वालीफाई भी कर लिया था लेकिन पैरों में जूते न पहनने के विवाद के चलते टीम को बाहर का रास्ता देखने को मजबूर होना पड़ा था। भारतीय टीम के पूर्व कप्तान बाइचिंग भूटिया कहते हैं कि खेल को बढ़ावा देने के लिए भारतीयों के पास दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं है। भूटिया का तो यहां तक मानना है कि जब तक ज़मीनी स्तर पर सुधार नहीं किया जाएगा तब तक कोई बेहतर परिणाम निकलकर सामने नहीं आएगा। इसी तरह से खेल विषेशज्ञ नोवी कपाड़िया कहते हैं, इस तरह के मैचों को कराने से थोड़ा बहुत फ़ायदा तो मिल सकता है लेकिन जब तक भारतीय फ़ुटबॉल का ढाँचा नहीं बदलेगा तब तक ज्यादा कुछ नहीं हो सकता। फिलहाल भले ही रातों रात भारतीय फुटबॉल में कोई बड़ी बदलाव देखने को न मिले लेकिन रात के अंधेरे में इस तरह के आयोजन एक छोटी सी रोशनी की किरण जरूर साबित होगी, जिनसे उम्मीद के दिये रोशन किये जा सकते हैं।

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